आज से लगभग 95 साल पहले, रमन इफेक्ट का पता लगाया गया था। बहुत से लोगों को शायद यह मालूम नहीं है, रमन इफेक्ट की खोज में, के.एस. कृष्णन ने भी सीवी रमन का साथ दिया था। साल 1930 में जब रमन को नोबेल पुरस्कार मिला, तो कुछ लोगों को लगा कि कृष्णन को उनके योगदान का प्रर्याप्त श्रेय नहीं मिला। जबकि कृष्णन उनके बहुत अच्छे व्यावसायिक मित्र थे, जिसकी चर्चा रमन स्पेक्ट्रोस्कोपी में भी हुई है। कृष्णन ने खुद भी कहा था कि नोबेल पुरस्कार अपने आप में, इस विषय पर हमारी प्रगति और इतिहास का एक सच्चा और ईमानदार साक्ष्य है, और उन्हें उम्मीद भी थी कि सीवी रमन अपने भाषण में केआर रामानाथन के साथ शुरू करते हुए सभी को उनका उचित श्रेय देंगे। और, जब सीवी रमन को नोबेल पुरस्कार मिला, तब उन्होंने अपनी स्पीच के दौरान कृष्णन की बहुत तारीफ की थी। भारत रत्न सीवी रमन के योगदान को देखते हुए, भारत, हर साल 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाता है। इस दिवस की घोषणा साल 1986 में हुई थी और साल 1987 में पहली बार यह दिन मनाया गया था। भारतीय वैज्ञानिक चंद्रशेखर वेंकट रमन पहले भारतीय और एशिया के पहले व्यक्ति थे, जिन्हें साइंस का पहला नोबेल पुरस्कार मिला। इतना ही नहीं, वो एकमात्र non-White मतबल गैर-श्वेत भारतीय वैज्ञानिक थे, जिन्हें यह अवॉर्ड मिला था।
7 नवंबर, 1888 को दक्षिण भारत के तिरुचिरापल्ली में जन्में चंद्रशेखर वेंकट रमन 8 बच्चों में, दूसरे नंबर पर थे। उनके पिता रामानाथन अयर, गणित और फिजिक्स के लैक्चरर थे। उनकी मां का नाम पार्वती था, जो कि एक हाउसवाइफ थी। रमन का शुरू से ही विज्ञान में इंटरस्ट(interest) था, जिसके चलते वो अक्सर अपने पिता की किताबें पढ़ा करते थे। उन्होंने सिर्फ 11 साल की उम्र में 10वीं की पढ़ाई पूरी कर ली। और 13 साल की उम्र में स्कॉलरशिप के तहत, 12वीं की परीक्षा पास की। 1902 में, उन्होंने फिजिक्स में अंडरग्रेजुएशन की डिग्री के लिए, प्रेसीडेंसी कॉलेज मद्रास में प्रवेश लिया और 15 साल की उम्र में, अंग्रेजी और फिजिक्स में गोल्ड मेडल जीतकर, क्लास के टॉपर बन गए। उस समय, फर्स्ट डिविजन से पास होने वाले, वो इकलौते स्टूडेंट थे। हालांकि इसके बाद, उन्होंने उसी विश्वविद्यालय से 1907 में पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री पूरी की। सरकार ने आगे पढ़ने के लिए, उन्हें विदेश में पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप भी दी, लेकिन कुछ मेडिकल इशू की वजह से, वो नहीं जा पाए। इसलिए उन्होंने Financial Civil Services की परीक्षा देने का फैसला लिया। वो पास हो गए, और उन्हें बतौर सहायक महालेखाकार यानी assistant accountant general की जॉब मिल गई। नौकरी लगने के कुछ समय बाद, उन्होंने लोकसुंदरी अम्मल से शादी की, जिससे उन्हें 2 बेटे हुए। अपनी जॉब के कुछ साल बाद, उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी। जिसके बाद, 29 साल की उम्र में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में physics के पहले पालित प्रोफेसर के तौर पर कार्यभार संभाला।
कहा जाता है अपनी यात्रा के दौरान, जब वो यूरोप के रास्ते में थे, तो "समुद्र के नीले रंग को देखकर, उनके दिमाग में एक सवाल आया कि एक गिलास के पानी का कोई रंग नहीं है, लेकिन समुद्र में वही पानी, कैसे नीला दिखाई दे रहा है। और इसके जवाब के लिए उन्होंने रिसर्च शुरू की। उन्होंने एक फलयूड से सिर्फ 1 रंग के प्रकाश को पास किया, लेकिन दूसरी ओर जो प्रकाश उभर कर आया, वो किसी और रंग का था। उन्होंने देखा कि उस फलयूड में जो कण यानी molecules थे, वो इसमें से गुजरने वाले प्रकाश का रंग बदल रहे थे। रमन की यही वो खोज थी, जिसने दुनिया में सनसनी ला दी। मतलब यही वो रमन इफैक्ट है, जिसकी बदौलत क्रिस्टल के इंटरनल स्ट्रक्चर से लेकर, चांद पर जाने तक के कई रहस्यों को सुलझाने में मदद मिली। साल 1943 में उन्होंने बंगलौर के पास रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट खोला, और उम्रभर वहीं रिसर्च करते रहे, और साल 1970 में उनका देहांत हो गया। शार्ट में कहें तो यह सीवी रमन ही थे, जिन्होंने दुनिया को पहली बार बताया कि लाइट यानी प्रकाश हमेशा सीधी लाइन में नहीं चलता। द रेवोल्यूशन देशभक्त हिंदुस्तानी सिर्फ यही कहना चाहता है कि एक सहयोगी, हमारी पॉवर, हमारा सप्पोर्ट(support) है और रमन स्कैटरिंग में केएस कृष्णन ने भी एक को-रिसचर की तरह काम किया था। हम रमन इफेक्ट पर काम करने वाले सभी वैज्ञानिकों को तहेदिल से सेल्यूट करते हैं! आप सभी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं देते हैं!