मान लीजिए, आपके पास 2 रास्ते हैं। एक धोखे से जीतने का, और दूसरा- ईमानदारी से हारने का, आप क्या चुनेंगे। आज मैं, आपको एक ऐसी कहानी सुनाउंगी, जिसमें एक युवा, सच की रक्षा के लिए, जीत का त्याग कर देता है। एक बार, क्रास कंट्री रेस चल रही थी। अंतिम दौर में सिर्फ 2 एथलीट बचे थे। रेस, लगभग अपने अंतिम पड़ाव पर थी। देखते ही देखते, पहला खिलाड़ी अंतिम रेखा के बिलकुल नजदीक पहुंच गया, लेकिन अचानक उसके कदम धीमे पड़ गए। उसे लगा, शायद उसने रिबन को क्रॉस कर लिया है और रेस जीत गया है, हांलांकि ऐसा था नहीं।
उससे लगभग 3 कदम पीछे ही, दूसरा एथलीट था। वो समझ चुका था कि गलतफहमी की वजह से, पहला एथलीट रुक रहा है। वो जोर-जोर से चिल्लाकर उसे आगे बढ़ने के लिए कहता है, लेकिन पहला एथलीट, समझ नहीं पाया कि वो क्या बोल रहा है। यह देखकर, दूसरे एथलीट ने उसकी पीठ पर हाथ रखा और धक्का देकर उसे अंतिम रेखा की ओर, आगे बढ़ाया। सही मायने में अब, पहले एथलीट ने फाइनल लाइन क्रॉस की थी और रेस जीत चुका था।
यह देखकर, पत्रकारों ने, उससे पूछा कि पहला एथलीट, रेस खत्म होने से पहले ही रुक गया था। तुम उसे क्रॉस करके आसानी से जीत सकते थे, लेकिन तुमने ऐसा नहीं किया, क्यों? उसने जवाब दिया कि मेरे लिए ऐसी जीत के क्या मायने होते, वो मेडल मुझे, जीत की खुशी नहीं दे पाता। और फिर, जब मेरी मां को इस बारे में पता चलता, तो वो क्या बोलती। जिंदगी भर, मेरी मां मुझे, संस्कारी बनाने में लगी रही और आज मैं, ऐसे किसी बेबस इनसान को धोखे से हराकर, उसका ईनाम हथिया लेता। मैं, ऐसा हरगिज नहीं कर सकता। इस कहानी से समझ सकते हैं कि त्याग के समान, तो कोई दूसरा सुख नहीं है। क्षमा, दया, प्रेम भाव और त्याग हमें, सही मायने में, एक इनसान बनाते हैं। दूसरों को गिराकर, बेशक हम आगे निकल जाएं, समाज में हमारी वाहवाही हो, लेकिन इससे सच्चा सुख कभी नहीं मिलता।